प्रो. एमपीएस बिष्ट: दोस्तों देहरादून से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर एक सुंदर, रमणीक, ऐतिहासिक व धार्मिक दृष्टिकोण से बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान ‘लाखामंडल’ में जाने का अवसर प्राप्त हुआ। कुछ बातें जो मुझे समझ आई आपसे साझा करना चाहता हूं। वैसे तो यहां का पौराणिक मंदिर व अनगिनत शिवलिंग किसी विशेष शिव के उपसाकों से संबंधित है और आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) द्वारा संरक्षित भी है। लिहाजा, इस क्षेत्र को विस्तार से महाभारत काल में लाक्षागृह से संबंधित घटना से जोड़ कर समझाने का प्रयास किया गया है। परंतु मेरा नजरिया एक भू-विज्ञान का छात्र होने के कारण थोड़ा अलग है।
लोगों का कहना है यहां मंदिर के इर्द-गिर्द जहां भी खोदो, जगह जगह शिवलिंग निकलते हैं। जो कि दिख भी रहा है। ठीक उसी प्रकार जैसे कि श्रीनगर गढ़वाल में, जब एसएसबी परिसर में मेरे पिताजी वर्ष 1970-80 के दशक में वहां पर कार्यरत थे। जवानों के लिए बैरक बनाने से लेकर स्टेडियम व अन्य आवासों के निर्माण के लिए खुदाई के उपरांत ऐसे ही शिवलिंग व दबे हुए मंदिर निकले थे ।
इतिहास गवाह है कि श्रीनगर तब गढ़वाल की राजधानी हुआ करती थी और पूर्व में यह घाटी कई बार जलमग्न भी हो चुकी है। इसके कुछ लिखित प्रमाण स्व. महंत गोविंदपुरी की किताब में उल्लिखित पाए जाते हैं। 723 एडी से लेकर ब्रिटिश आर्काइव में वर्ष 1803 में हिमालायी क्षेत्र का सबसे बड़ा भूकंप का केंद्र (वर्ष 1859, 1970) बना था और वर्ष 2013 की जल त्रासदी से तो सभी वाकिफ हैं।
यहां पर खास बात यह है कि श्रीनगर भी एक महत्वपूर्ण शिव क्षेत्र रहा है और यहां पर पूर्व में गढ़वाल नरेश ने नाथ संप्रदाय के लोगों को आश्रय दिया था । जिसमें भक्तियाना, निरंजनी बाग, कमलेश्वर जैसे प्रमुख स्थान हैं, जहां पर आज भी इनके वंशज बसते हैं। पूर्व मैं मैंने देखा है कि नाथ संप्रदाय के लोगों को मरणोपरांत हिंदू रीति रिवाज की भांति अग्नि के सुपुर्द नहीं किया जाता था, बल्कि उनको जमीन में समाधिस्थ कर ऊपर से एक शिवलिंग स्थापित कर दिया जाता था। इस सबके लिए कुछ चुनिंदा स्थान निश्चित थे।
ये तो बात थी अनगिनत शिवलिंगो की। दूसरी जो भू-वैज्ञानिक दृश्टिकोण से महत्वपूर्ण बात है, वह यह कि श्रीनगर गढ़वाल की भांति यह क्षेत्र भी यमुना के बहाव में अवरुद्ध होने के कारण कई बार बहुत बड़ी झील में परिवर्ति हो चुका है। जिसके प्रमाण मंदिर परिसर के सामने और मंदिर से लगभग 50 मीटर की ऊंचाई पर यमुना नदी के द्वारा लाए गए सेडिमेंट्स/गाद का पाया जाना है। सामान्य तौर पर यह मलबा बहुत संगठित नहीं होता। परंतु इस स्थान में पूर्व में जमा किए गए गाद के बोल्डर को आपस में चूने जैसे सीमेंटिंग पदार्थ के द्वारा ठोस एवं संगठित कर दिया गया है। अब वे ठोस व सुसंगठित हो चुके हैं। जिसके चलते कालांतर में इस टेरेस पर मानव द्वारा खुदाई कर सुंदर गुफाओं का निर्माण कर दिया गया। अभी हाल ही में इसी क्षेत्र के पूर्व प्रधान श्री गौड़ जी के द्वारा अपने खेतों में कुछ अन्य शिवलिंगों की खुदाई करवाई गई है, जो संभवतः यमुना के उसी जल प्रलय में दब गए थे और अब खुदाई करने पर बाहर निकल रहे हैं।
उत्तराखंड की सभी बड़ी नदियों में इस प्रकार से नदी अवरोध के कारण बनी झीलों के प्रमाण हमें बहुत जगह मिल जाते हैं। अकेले धौलीगंगा में मलारी से लेकर विष्णुप्रयाग तक 11 ऐसे स्थलों को मैंने खुद सर्वे किया था। इन झीलों की प्रमाणिकता के लिए हमारे विभाग के प्रो. यशपाल सुंद्रियाल ने श्रीनगर के स्वीत मलबे की ओएसएल डेटिंग भी की थी, जो लगभग 8 और 12 हजार वर्ष पुरानी निकली है।
यानी प्रमाणित है कि दो बार तो पहले भी यहां पर अलकनंदा अवरुद्ध हो चुकी है।
अंत में मेरा यह मानना है कि उत्तराखंड की राजधानी के इतने करीब इतना महत्वपूर्ण और सुंदर, रामणीक स्थल जो कि एक लाजवाब टूरिस्ट डेस्टिनेशन है, इसे नए रूप में संवारने और साधन संपन्न बनाने के प्रयास करने चाहिए। मेरे यहां आने के दूसरे दिन प्रदेश के सबसे बड़े प्रशासक/मुख्य सचिव डॉ एसएस संधु और देहरादून की जिलाधिकारी सोनिका ने भी यहां का दौरा किया। बताया जाता है कि राज्य के तमाम बड़े नौकरशाह कई बार व कुछ हर वर्ष अपने परिवार के साथ भगवान शिव के जलाभिषेक के लिए इस स्थान पर आते हैं। फिर भी इस दिव्य स्थली की हालत उत्तराखंड के किसी पिछड़े गांव जैसी ही है और यह बेहद चिंता का विषय है।
नोट: लेखक एचएचएनबी गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय में भूगर्भ विभाग के प्रोफेसर हैं।