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संजीव चतुर्वेदी–व्यवस्था के आईने में ईमानदारी की जंग

तबादलों से इलाके बदलते हैं-इरादे नहीं, इस अंदाज में भ्रष्टाचार के विरुद्ध जारी है संजीव की लड़ाई

Krishna Bisht, Haldwani: भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार कोई नया विषय नहीं है। अंतर बस इतना है कि अधिकतर अधिकारी तंत्र की प्रवृत्तियों से समझौता कर लेते हैं, जबकि कुछ ही ऐसे होते हैं, जो पूरे सिस्टम को चुनौती देने का साहस दिखाते हैं। भारतीय वन सेवा (आईएफएस) के वरिष्ठ अधिकारी संजीव चतुर्वेदी इस अपवाद का सबसे सशक्त उदाहरणों में से एक हैं।

तंत्र और ईमानदारी का टकराव
संजीव चतुर्वेदी ने हरियाणा से लेकर AIIMS, नई दिल्ली और उत्तराखंड तक अपने कार्यकाल में बार-बार यह साबित किया कि एक अडिग और ईमानदार अधिकारी व्यवस्था के भीतर कितनी बड़ी हलचल पैदा कर सकता है। वन विभाग की अनियमितताओं से लेकर AIIMS के भ्रष्टाचार मामलों तक, उन्होंने जिन घोटालों को उजागर किया, वह केवल वित्तीय बेईमानी नहीं थे, बल्कि सत्ता और नौकरशाही के बीच गहरे गठजोड़ का प्रमाण भी थे।

लेकिन, ईमानदारी की कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। बार-बार के तबादले, निलंबन, चार्जशीट और राजनीतिक प्रतिरोध-यह सब उस प्रशासनिक व्यवस्था की कहानी कहता है, जहां भ्रष्टाचार विरोधी अधिकारी खुद ही निशाने पर आ जाते हैं।

ifs sanjiv chaturvediअंतरराष्ट्रीय पहचान और घर में उपेक्षा का प्रहार
वर्ष 2015 में उन्हें रैमॉन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह उस साहस की वैश्विक पहचान थी, जिसकी देश के भीतर अक्सर कद्र नहीं होती। यही विडंबना है कि जिन्हें एशिया का “नोबेल” मिला, उन्हें अपने ही देश में लगातार अपमान और उत्पीड़न सहना पड़ा। व्यवस्था की उपेक्षा का शिकार उन्हें निरंतर बनाया जाता रहा। अलग-थलग करने की कोशिश की जाती रही।

समाज सेवा का नया आयाम
संजीव चतुर्वेदी केवल एक भ्रष्टाचार विरोधी योद्धा नहीं हैं, बल्कि समाजसेवा के प्रतीक भी बनकर उभरे हैं। पुरस्कार राशि और क्षतिपूर्ति का दान, कैंसर मरीजों से लेकर पुलवामा शहीदों तक उनकी संवेदनशीलता, यह दिखाती है कि उनके लिए सेवा केवल दफ्तर की चारदीवारी तक सीमित नहीं है।

वर्तमान मामलों की दिल्ली तक गूंज
मसूरी वन प्रभाग में 7,375 सीमा स्तंभों का गायब होना और मुनस्यारी ईको-टूरिज्म परियोजना में 1.63 करोड़ का घोटाला—यह केवल संयोग नहीं हैं। यह उस सिस्टमेटिक करप्शन का आईना हैं, जिसमें सत्ता संरक्षण प्राप्त नेटवर्क पूरी प्रशासनिक संरचना को खोखला करने में लगे हैं। चतुर्वेदी ने इन्हें उजागर कर यह स्पष्ट कर दिया कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील पर्यावरणीय भूभाग में भी भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी हैं।

असल प्रश्न, जिनका जवाब आना बाकी
यहां मूल प्रश्न चतुर्वेदी नहीं हैं। मूल प्रश्न यह है कि-

-क्या हमारी प्रणाली ईमानदार अधिकारियों को संरक्षण दे सकती है?

-क्या राजनीतिक दबाव और नौकरशाही के गठजोड़ को तोड़ा जा सकता है?

-क्या पारदर्शिता केवल नारे तक सीमित है, या फिर वास्तविक नीतिगत संकल्प भी है?

आईना देखने का समय और सूरत संवारने का भी
संजीव चतुर्वेदी जैसे अधिकारी यह साबित करते हैं कि व्यवस्था को बदलना संभव है, लेकिन इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। उनका जीवनप्रसंग हमें यह सोचने पर विवश करता है कि यदि ईमानदारी ही सबसे बड़ी सजा बन जाए, तो समाज और लोकतंत्र का भविष्य किस दिशा में जाएगा? अब समय है कि व्यवस्था केवल ऐसे अधिकारियों को सम्मानित करने तक सीमित न रहे, बल्कि उनके संरक्षण और स्वतंत्र कार्यक्षेत्र की गारंटी भी दे। अन्यथा, ईमानदारी व्यवस्था की किताबों में दर्ज एक आदर्श तो रह जाएगी, पर व्यवहार में खोती चली जाएगी।

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