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कंक्रीट के जंगलों में 50 प्रतिशत सिमट गया गौरैया का संसार, गांवों में अभी उम्मीद बाकी

भारतीय वन्यजीव संस्थान में प्रस्तुत किया गया गौरैया के चहकते और सिमटते संसार पर अध्ययन

Amit Bhatt, Dehradun: कभी हर सुबह आंगन, छत और बाड़े पर चहकने वाली गौरैया अब शहरों में लगभग गायब होने लगी है। भारतीय वन्यजीव संस्थान (WII), देहरादून द्वारा किए गए उत्तराखंड में गौरैया की आबादी पर हुए पहले राज्यव्यापी वैज्ञानिक सर्वेक्षण ने यह चौंकाने वाला सच उजागर किया है। अध्ययन में सामने आया कि जहां ग्रामीण इलाकों और मध्यम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में गौरैया की उपस्थिति अब भी संतोषजनक है, वहीं बड़े और विकसित होते शहरों में यह पक्षी 50 प्रतिशत तक घट गया है।

भारतीय वन्यजीव संस्थान की वार्षिक शोध संगोष्ठी में प्रतिभागी।

🕊️ 875 गांवों, 20 छोटे-बड़े शहरों में अध्ययन
यह शोध “From Villages to Cities: Tracking the Fate of House Sparrow in the Uttarakhand Himalaya” शीर्षक से किया गया। इसे वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. आर. सुरेश कुमार और डा. धनंजय मोहन (अब वन विभाग के हेड ऑफ फॉरेस्ट फोर्स पद से रिटायर) के नेतृत्व में संचालित किया गया। अध्ययन जुलाई 2024 से जून 2025 के बीच राज्य वन विभाग के सहयोग से संपन्न हुआ।
शोध टीम ने 875 गांवों, 16 नगरों और देहरादून जैसे चार बड़े शहरों में गौरैया की उपस्थिति दर्ज की। हर क्षेत्र में 100 मीटर लंबी ट्रांसेक्ट लाइन खींचकर वहां दिखने वाली गौरैयों की गिनती की गई।

आंकड़ों का विश्लेषण करने के लिए वैज्ञानिकों ने MCDS मॉडल (Multiple Covariate Distance Sampling) और Binomial Regression जैसी उन्नत सांख्यिकीय तकनीकों का प्रयोग किया। इससे यह स्पष्ट हुआ कि कौन से भौगोलिक या मानवीय कारक गौरैया की संख्या को प्रभावित कर रहे हैं।

📊 प्रमुख निष्कर्ष
– निचले पहाड़ी और ग्रामीण क्षेत्रों में गौरैया की संख्या स्थिर या संतोषजनक पाई गई।
– शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 33% से 50% तक घट चुकी है।
– 9 तहसीलों में प्रति 100 मीटर ट्रांसेक्ट पर औसतन 1 से भी कम गौरैया दर्ज की गई।
– 10 तहसीलों में यह संख्या 5 से अधिक प्रति ट्रांसेक्ट पाई गई।

ऊंचाई वाले ग्रामीण क्षेत्रों में चहचहाट बाकी
मध्यम ऊंचाई वाले ग्रामीण इलाके गौरैया के लिए सबसे उपयुक्त सिद्ध हुए। ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में आबादी घटने का मुख्य कारण कम मानव बस्तियां और सीमित भोजन स्रोत रहे। अध्ययन दल में रेनू बाला, अयान खन्ना, परमोद कुमार, हर्ष प्रताप चौहान, श्रबस्ती मजूमदार, सरबराप्रिय दत्ता और आशीष रावत जैसे शोधकर्ताओं ने अहम योगदान दिया।

🌿 गौरैया के अनुकूल सूक्ष्म आवास (माइक्रो-हैबिटेट)
शोध से यह भी स्पष्ट हुआ कि गौरैया की मौजूदगी कुछ खास सूक्ष्म पर्यावरणीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है। जहां अधिक गौरैया मिलीं:
– किराना या ग्रॉसरी की दुकानें
– कूड़ेदान और गार्बेज बिन
– झाड़ियां या झुरमुट
– निजी बाग-बगीचे

जहां गौरैया कम दिखीं:
– पारंपरिक मकान या खाली जमीन
– गोशालाएं
– मौसमी बदलाव वाले क्षेत्र

इन तथ्यों से यह संकेत मिलता है कि गौरैया मनुष्य के समीप रहने वाली सिनैंथ्रोपिक प्रजाति है, यानी ऐसी प्रजाति जो मानव बस्तियों से गहराई से जुड़ी होती है।

🔬 घटती आबादी के वैज्ञानिक कारण
गौरैया के अस्तित्व पर सबसे बड़ा प्रभाव शहरीकरण और आधुनिक निर्माण शैली का पड़ा है। पारंपरिक मिट्टी या टाइल की छतें अब कंक्रीट की स्लैब से ढक चुकी हैं, जिससे घोंसले बनाने की जगहें खत्म हो गईं। इसी तरह, अनाज भंडार और छोटे किराना स्टोरों के कम होने से भोजन स्रोत भी घटे। सड़कों का विस्तार, वाहनों की बढ़ती आवाज़ और प्रदूषण ने भी इनके आवास को प्रभावित किया है।

🌱 संरक्षण की दिशा में नया अध्याय
यह अध्ययन गौरैया संरक्षण के लिए एक नीतिगत दस्तावेज़ साबित हो सकता है। डा. सुरेश कुमार के अनुसार, “जहां बस्तियों में हरियाली, छोटे बाग-बगीचे और खाद्य अपशिष्ट मौजूद हैं, वहां गौरैया की उपस्थिति बनी हुई है। इसलिए शहरी योजनाओं में ऐसे आवासीय ढांचे जरूरी हैं जो गौरैया जैसी छोटी पक्षियों को भी आश्रय दें।”

📌 निष्कर्ष: समझनी होगी गुम होती चहचहाट की चेतावनी
देहरादून से लेकर काशीपुर, हल्द्वानी और पिथौरागढ़ तक, गौरैया की उपस्थिति अब मानव संवेदनशीलता पर निर्भर है। अगर शहरों में हरियाली, खुले आंगन और स्थानीय अनाज केंद्रों को संरक्षित किया जाए, तो गौरैया फिर से लौट सकती है। भारतीय वन्यजीव संस्थान का यह अध्ययन न केवल पक्षियों के लिए, बल्कि मनुष्य और प्रकृति के सहअस्तित्व की दिशा में भी एक चेतावनी और अवसर दोनों प्रदान करता है।

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