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कौन थे दून के पहले डीएम? 65वें डीएम बने सविन, जानिए दून की प्रशासनिक व्यवस्था में सब कुछ

देहरादून में पहले जिलाधिकारी की ताजपोशी वर्ष 1935 में की गई, तब अधिकारी होते थे आईसीएस

Rajkumar Dhiman, Dehradun: वर्ष 2009 बैच के आइएएस (भारतीय प्रशासनिक सेवा) सविन बंसल ने देहरादून के 65वें जिलाधिकारी के रूप में कमान संभाली है। उन्होंने वर्ष 2010 बैच की आइएएस अधिकारी सोनिका की जगह ली। पदभार ग्रहण करने के बाद ही नवनियुक्त जिलाधिकारी बंसल से अपने प्राथमिकता और प्रतिबद्ध स्पष्ट करते हुए कहा कि एक लोकसेवक के रूप वह अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति तक सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पहुंचाने का काम करेंगे। साथ ही उन्होंने भूमाफिया के प्रति निगाहें टेढ़ी करते हुए सख्त कदम उठाने के संकेत दिए। जाहिर है, नागरिकों के हितों की रक्षा करने की दिशा में जिलाधिकारी की भूमिका जिले में सबसे बड़ी होती है। तो आइए जानते हैं कि जिले की सुप्रीम अथॉरिटी ‘जिलाधिकारी’ की ताजपोशी का देहरादून का इतिहास कितना पुराना है।

ब्रिटिशकाल से ही विशेष पहचान रखने वाला देहरादून पूर्व में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से जुड़ा हुआ था। वर्ष 1871 में इसे अलग जिले के रूप में पहचान मिली। हालांकि, इस क्षेत्र में जिलाधिकारी की ताजपोशी वर्ष 1935 से की जाने लगी थी। तब 26 अक्टूबर 1935 को बीजीके हलोवस को जिला अधिकारी/जिला मजिस्ट्रेट बनाया गया था। वह मार्च 1937 तक इस पद पर आसीन रहे। तब से लेकर अब तक देहरादून को 65 जिलाधिकारी मिल चुके हैं।

यहां से लेकर उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड के गठन 09 नवंबर 2000 से पहले तक 43 जिलाधिकारी देहरादून में तैनात रहे। राज्य गठन के दौरान देहरादून के पहले जिलाधिकारी के रूप में निवेदिता शुक्ला वर्मा ने जगह ली। राज्य गठन से अब तक की बात की जाए तो देहरादून को अब तक 22 जिलाधिकारी मिल चुके हैं। इस लिहाज से देहरादून में एक जिलाधिकारी का कार्यकाल औसतन 01 वर्ष के करीब ही रहा। यह ट्रेंड बताता है कि एक जिले को जानने, समझने और उसे बेहतर बनाने की दिशा में यह समय अपेक्षाकृत काफी कम रहा।

राज्य गठन के दौरान और इसके बाद तैनात हुए जिलाधिकारियो में 03 आइएएस अधिकारी एसके दास, ओम प्रकाश और राधा रतूड़ी प्रदेश की नौकरशाही में सर्वोच्च पद मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुंचे हैं। राधा रतूड़ी वर्तमान में प्रदेश की मुख्य सचिव हैं। हालांकि, शुरुआत में इस तरह की जिम्मेदारी आईसीएस (इंडियन सिविल सर्विस) के अधिकारियों को मिलती थी। तब आइएएस नहीं होते थे। वर्ष 1951 के बाद से आइएएस अधिकारियों के रूप में देहरादून में जिलाधिकारी की ताजपोशी की जाने लगी। आइएएस के रूप में पहले जिलाधिकारी वीसी शर्मा रहे।

आईसीएस बनाम आइएएस, जानिए इतिहास
इंडियन सिविल सर्विस (आईसीएस), जिसे आधिकारिक रूप में इंपीरियल सिविल सर्विस के रूप में जाना जाता था। वर्ष 1858 और 1947 के बीच की अवधि में ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में ब्रटिश शासन की यह सर्वोच्च सिविल सेवा थी। वर्ष 1853 तक ईस्ट इण्डिया कंपनी के निदेशक अनुबंधित सिविल सेवकों की नियुक्ति नामांकन के माध्यम से करते थे। वर्ष 1853 में ब्रिटिश संसद ने नामांकन प्रणाली को समाप्त कर तय किया कि इसकी नियुक्तियां परीक्षा के माध्यम से की जाएंगी। जो बिना नस्लीय भेदभाव के संपन्न कराई जाएंगी।

उस दौरान इस सेवा के लिए प्रवेश परीक्षा प्रत्येक वर्ष के अगस्त माह में लंदन में आयोजित कराई जाती थी। सभी उम्मीदवारों को घुड़सवारी परीक्षा अनिवार्य रूप से पास करनी होती थी। अभ्यर्थियों के लिए आयु सीमा 18 से 23 वर्ष थी और कुल 1900 अंकों की परीक्षा पास करने के लिए प्रत्येक अभ्यर्थी को 03 अवसर दिए जाते थे। शुरुआत में इस परीक्षा में सिर्फ अंग्रेज ही भाग ले सकते थे, लेकिन वर्ष 1862-64 में इसके दरवाजे भारतीयों के लिए भी खोल दिए गए थे। हालांकि, लंदन जाकर परीक्षा देना भारतीयों के लिए मुश्किल था। परीक्षा पाठ्यक्रम भी ऐसा था कि उसे ज्यादातर वहीं के लोग पास कर सकें।

आईसीएस को भारत में कराने की भारतीयों की मांग वर्ष 1922 में जाकर पूरी हुई। सबसे पहले इसका आयोजन इलाहाबाद में किया गया। इसके बाद वर्ष 1935 में संघीय लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) का गठन किया गया और परीक्षा दिल्ली में कराई जाने लगी। वर्ष 1950 में संघीय लोक सेवा आयोग को संघ लोक सेवा आयोग के रूप में स्थापित किया गया। यहीं से आइएएस का उदय ही होता है। यूपीएससी के तहत अन्य अखिल भारतीय सेवाओं के लिए भी चयन किया जाता है।

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