मूल निवास 1950: उत्तराखंड में फिर एक बड़े आंदोलन की सुगबुगाहट
मूल निवास स्वाभिमान महारैली 24 दिसंबर 2023 के लिए दून के परेड ग्राउंड में प्रदेशभर की जनता की बड़े स्तर पर स्वस्फूर्त भागीदारी की संभावना
Amit Bhatt, Dehradun: उत्तराखंड में एक बार फिर एक बड़े आंदोलन की सुगबुगाहट तेज हो गई है। राज्य निर्माण के आंदोलन के बाद यह पहला ऐसा आंदोलन साबित होता नजर आ रहा है, जिसमें प्रदेश की बहुसंख्य आबादी भावनात्मक रूप से जुड़ रही है। इतिहास गवाह है, जब भी जन की भावनाओं का ज्वार उफान पर आया है तो संघर्ष निर्णायक स्थिति तक पहुंचे हैं। इस बार भी प्रदेश की जनता के दिलों में वही हूक उठती दिख रही है। इस बार जन की भावनाओं में मूल निवास 1950 और सशक्त भूकानून की मांग का ज्वार फूटता दिख रहा है। मूल निवास 1950 और सशक्त भूकानून की मांग को लेकर मूल निवास स्वाभिमान महारैली का आयोजन किया जा रहा है। आंदोलन में शरीक होने के लिए प्रदेश की जनता को 24 दिसंबर को देहरादून के परेड मैदान में एकजुट होकर महारैली में प्रतिभाग करने का आह्वान किया गया है।
यह किसी एक दल या संगठन का आंदोलन नहीं, बल्कि इस आंदोलन में जनता की सक्रिय भागीदारी के लिए तमाम संगठन अपील कर रहे हैं। मूल निवास-भू कानून समन्वय संघर्ष समिति से लेकर राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी और अन्य संगठन से जुड़े लोग महारैली में जनता की भागीदारी के लिए निरंतर आह्वान कर रहे हैं। यहां तक कि उत्तराखंडी संस्कृति के ध्वजवाहक नरेंद्र सिंह नेगी ने सोशल मीडिया पर एक अपील भी जारी की है। जनता के नाम उनका संदेश और गीत खूब प्रसारित (वायरल) किया जा रहा है। जिसमें वह कह रहे हैं कि मूल निवासी की बाध्यता को समाप्त किए जाने यहां के मूल निवासियों के समक्ष पहचान का संकट पैदा हो गया है। उन्होंने यह भी कहा कि मूल निवास की जगह लेने वाले स्थाई निवास प्रमाण पत्र के बल पर बाहरी राज्यों के 40 लाख से अधिक लोक राज्य के स्थाई निवासी बन गए हैं।
राष्ट्रवादी रीजनल पार्टी के संयोजक शिवप्रसाद सेमवाल ने भी सोशल मीडिया पर मूल निवास और सशक्त भूकानून की महारैली में प्रतिभाग करने के लिए अपील जारी की है। उन्होंने अपील के माध्यम से बताया है कि क्यों मूल निवास 1950 को लागू किया जाना जरूरी है और किस तरह मूल निवास को पीछे धकेल कर उसकी जगह स्थाई निवास प्रमाण पत्र का अमलीजामा पहनाया गया। इसमें शामिल रहे तमाम अधिकारियों को भी उन्होंने कठघरे को खड़ा किया है। वहीं, अखिल भारतीय समानता मंच ने भी ‘हिटो देहरादून’ की अपील के माध्यम से स्वाभिमान महारैली में शामिल होने का आह्वान किया है। दूसरी तरफ प्रदेश के तमाम बुद्धिजीवी और राज्य निर्माण आंदोलनकारी भी व्यक्तिगत और संगठनात्मक रूप से आंदोलन की पैरोकारी कर रहे हैं।
सरकार को जनभावनाओं के ज्वार का आभास, सीएम धामी हुए सक्रिय
मूल निवास और सशक्त भूकानून को लेकर जनभावनाओं के उमड़ते भाव को सरकार भी पहचानती दिख रही है। कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी यह निर्देश जारी कर चुके हैं कि मूल निवास प्रमाण पत्र होने की दशा में अलग से स्थाई निवास की मांग न की जाए। इसके बाद उन्होंने मूल निवास और स्थाई निवास को लेकर उठ रही बातों और स्थिति के परीक्षण के लिए उच्च स्तरीय समिति के गठन के निर्देश भी जारी किए हैं। प्रदेश के दो सबसे बड़े राजनीतिक दलों की बात की जाए तो कांग्रेस के नेता आंदोलन के पक्ष में खड़े होते दिख रहे हैं। भाजपा भी इसके विरोध में नहीं है, लेकिन सीधे समर्थन की जगह पार्टी के नेता आश्वासन देते दिख रहे हैं। दूसरी तरफ भूकानून समिति की ओर से उपलब्ध कराई गई रिपोर्ट के अध्ययन को भी सरकार ने 05 सदस्यीय समिति का गठन कर दिया है।
किस करवट बैठेगा आंदोलन, 24 को होगा तय
मूल निवास और सशक्त भूकानून का यह जन आंदोलन किस करवट बैठेगा, यह 24 दिसंबर को प्रस्तावित स्वाभिमान रैली के बाद ही तय हो पाएगा। इतना जरूर है कि यह आंदोलन जन-जन का आंदोलन बनता दिख रहा है और लोग इससे स्वस्फूर्त भाव से जुड़ते दिख रहे हैं।
एसडीसी फाउंडेशन ने जनसंख्या और कैरिंग कैपेसिटी से जोड़ा आंदोलन को
प्रदेश के थिंक टैंक और सोशल डेवलपमेंट फॉर कम्युनिटीज (एसडीसी) फाउंडेशन के संस्थापक अध्यक्ष अनूप नौटियाल ने स्वाभिमान महारैली के निहितार्थ को जनसंख्या से जोड़े जाने पर बल दिया है। उन्होंने वीडियो संदेश जारी करते हुए कहा है कि जनसंख्या का सीधा मतलब यहां की कैरिंग कैपेसिटी यानी धारण या वहनीय क्षमता से है।
समाजसेवी अनूप नौटियाल ने कहा है कि हमारे प्रदेश का क्षेत्रफल करीब 54 हजार वर्ग किलोमीटर, जबकि हिमाचल प्रदेश का क्षेत्रफल 57 हजार वर्ग किलोमीटर है। हिमाचल में पिछले एक दशक की वोटर वृद्धि 10 लाख के साथ 21 प्रतिशत रही और उत्तराखंड में 30 प्रतिशत के साथ करीब 19 लाख वोटर बढ़े हैं। ऐसे में यह सोचने वाली बात यह है कि लगभग दो समान हिमालयी राज्य में वोटर वृद्धि में इतना भारी अंतर आ गया है। ऐसे में इस अप्रत्याशित बढ़ोतरी के पीछे के बड़े कारणों की थाह तक जाना जरूरी है। क्योंकि, जनसंख्या की अत्यधिक वृद्धि यहां के संसाधनों और सतत विकास की अवधारणा पर भी प्रतिकूल असर डालती दिख रही है।
लंबे समय से मूल निवास और भूकानून की मांग, इस बार आर या पार
प्रदेश की जनता मूल निवास और भूकानून पर इस बार आर या पार की लड़ाई लड़ने के मूड में दिख रही है। यह मांग है तो पुरानी, लेकिन इस बार आंदोलन में सभी वर्गों की एकजुटता दिख रही है। उत्तराखंड में राज्य स्थापना के बाद से ही हिमाचल की तर्ज पर सशक्त भू कानून लागू की मांग उठने लगी थी। जिसमें सबसे पहले वर्ष 2002 में सरकार की तरफ से प्रावधान किया गया कि राज्य के भीतर अन्य राज्य के लोग सिर्फ 500 वर्ग मीटर की जमीन ही खरीद सकते हैं।इस प्रावधान में वर्ष 2007 में एक संशोधन कर दिया गया और 500 वर्ग मीटर की जगह 250 वर्ग मीटर की जमीन खरीदने का मानक रखा गया। 06 अक्टूबर 2018 को भाजपा की तत्कालीन सरकार ने संशोधन करते हुए नया अध्यादेश प्रदेश में लाने का काम किया। उसमें उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि सुधार अधिनियम 1950 में संशोधन करके दो और धाराएं जोड़ी गई। जिसमें धारा 143 और धारा 154 के तहत पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा को ही समाप्त कर दिया गया। यानी राज्य के भीतर बाहरी लोग जितनी चाहे जमीन खरीद सकते हैं। राज्य सरकार की मंशा थी की इस नियम में संशोधन करने के बाद राज्य में निवेश और उद्योग को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन अब सरकार के इस फैसले का विरोध होने लगा है। इसके साथ ही राज्य में मूल निवास की अनिवार्यता 1950 करने की मांग की गई है। वर्ष 1950 से राज्य में रह रहे लोगों को ही मूल निवासी/स्थाई निवासी माने जाने की मांग उठ रही है।