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“जीवन का पथ कैसा था, हम चले जिस पर, वो संघर्ष, सबक और सीख का दौर था”

संस्मरण-माध्यमिक शिक्षा जीवन की यात्रा के (शैलेंद्र सिंह नेगी, उपजिलाधिकारी घनसाली, जिला टिहरी )

प्रिय पाठकों आप सभी को राउंड द वाच (Round The Watch) न्यूज पोर्टल का नमस्कार।
आज हम सब जीवन के किसी न किसी मुकाम पर खड़े हैं। यह मुकाम हम में से किसी ने भी एक दिन में हासिल नहीं कर लिया। कितने ही रास्ते, कितनी ही बाधाएं हमने पार की होंगी। जीवन की राह पर आगे बढ़ते हुए कितने ही अनुभव हमने प्राप्त किए होंगे और कितनी यादें इस सफर से जुडी होंगी। गाहे-बगाहे जब हम जीवन में पीछे मुड़कर देखते हैं तो कभी चेहरे पर झीनी से मुस्कान तैर जाती है, तो कभी आंखें नम हो जाती हैं। यादें कैसी भी हों, सफर कैसा भी रहा हो, उसका अक्स हमारे जीवन में किसी न किसी रूप में नजर आता है। कुछ यादें और बातें हमारे हाथों की लकीर की भांति साथ जुड़ जाती हैं।
जीवन के इस मुकाम पर जो यादें और बातें हमें बार-बार याद आती हैं, उन्हें सूचीबद्ध करने और एक दूसरे के साथ साझा करने के लिए हमने फीचर्ड सेगमेंट में एक कालम शुरू किया है। इसकी शुरुआत हम वर्ष 2014 बैच के उत्तराखंड पीसीएस कैडर के अधिकारी शैलेंद्र सिंह नेगी की माध्यमिक शिक्षा के दौरान की जीवन यात्रा से करने जा रहे हैं। शैलेंद्र सिंह नेगी ने यह संस्मरण डोईवाला में उपजिलाधिकारी के पद पर तैनाती के दौरान लिखा। वर्तमान में वह जनपद टिहरी की घनसाली तहसील के उपजिलाधिकारी (एसडीएम ) हैं।

नोट:अपने संस्मरण और जीवन यात्रा के अहम पड़ाव को आप भी निम्न ईमेल आईडी पर हमारे साथ साझा कर सकते हैं।
roundthewatchnews@gmail.com

…तो आइए जानते हैं उपजिलाधिकारी शैलेंद्र सिंह नेगी के माध्यमिक शिक्षा के दौरान की जीवन यात्रा को, उन्हीं की भाषा और उन्हीं की जुबानी।

 

माध्यमिक शिक्षा के लिए मेरी यात्रा और संघर्ष- एक संस्मरण।
मेरे माध्यमिक विद्यालय का नाम राजकीय इंटर कॉलेज सीकूखाल जिला पौड़ी गढ़वाल है I मेरी कक्षा 6 से 12 तक की शिक्षा इसी विद्यालय में हुई है। पूर्व में यह विद्यालय इंटर कॉलेज सीकू  khalyunsain  के नाम से जाना जाता था । बाद के वर्षों में इसका प्रांतीयकरण हुआ और अब यह विद्यालय राजकीय इंटर कॉलेज सीकूखाल के नाम से जाना जाता है।
मैंने इस विद्यालय में सन 1988 से 1994 तक अध्ययन किया । मेरे पिताजी इस विद्यालय में शिक्षक के रूप में कार्यरत रहे। यह विद्यालय मेरे गांव  चुरानी ब्लॉक रिखणीखाल से लगभग 150 किलोमीटर दूर स्थित था। जब मैं कक्षा 6 में पढ़ता था तब मेरी बड़ी बुआ जी का बेटा श्री अनूप सिंह बिष्ट इंटर कॉलेज सीकू में मेरे पिताजी के साथ रहकर कक्षा 12 में पढ़ता था । बड़े भाई के कक्षा 12 उत्तीर्ण करने के पश्चात  मेरी छोटी बुआ का बेटा श्री सत्येंद्र सिंह बिष्ट हमारे साथ पढ़ाई करने के लिए आया। इस प्रकार वर्ष 1988 में श्री अनूप सिंह बिष्ट कक्षा 12, श्री धर्मेंद्र सिंह नेगी कक्षा 7 और श्री शैलेंद्र सिंह नेगी कक्षा 6 में पढ़ते थे । वर्ष 1989 में श्री अनूप सिंह बिष्ट के उच्च शिक्षा के लिए जाने के पश्चात श्री धर्मेंद्र सिंह नेगी कक्षा 8, श्री शैलेंद्र सिंह नेगी कक्षा 7 ,श्री सत्येंद्र सिंह बिष्ट कक्षा 7  मेरे पिताजी के साथ रहने लगे।
हमारे बीच झगड़ा न हो, इसके लिए घर का काम बंटा हुआ था। वर्ष 1988 में श्री अनूप सिंह बिष्ट कक्षा 12 को रोटी बनाने तथा 2 डिब्बा पानी लाने की जिम्मेदारी थी। श्री धर्मेंद्र सिंह नेगी कक्षा 7 की जिम्मेदारी बर्तन साफ करने की तथा दो डिब्बा पानी लाने की थी। शैलेंद्र सिंह नेगी कक्षा 6 की जिम्मेदारी झाड़ू लगाना तथा दो डिब्बा पानी लाने की थी।दिन का भोजन तथा रात की सब्जी मेरे पिताजी बनाया करते थे। दाल तथा चावल बीनने की जिम्मेदारी सभी को अलग-अलग दी जाती थी। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि  एलपीजी गैस चूल्हा नहीं हुआ करता था। मिट्टी तेल स्टोव में खाना बनाते थे । अधिकांशतः रोटियां लकड़ी की आग में बनाते थे। शाम को जब खेलने या टहलने जाते थे तो रास्ते से लकड़ी भी उठाकर लाते थे क्योंकि अधिकांश निकटवर्ती क्षेत्र में जंगल था। ठंडा इलाका होने के कारण आग के पास रहना सबको अच्छा लगता था।
बाद के वर्षों में तीनो भाई समान उम्र के होने के कारण लड़ाई झगड़े की स्थिति उत्पन्न होने लगी । इसलिए  मेरे पिताजी द्वारा बहुत अच्छी एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था बनाई गई । पर्ची सिस्टम था। प्रत्येक पर्ची में काम लिखा रहता था। एक पर्ची में रोटी बनाना तथा दो डिब्बा पानी लाना , दूसरी पर्ची में बर्तन साफ करना तथा दो डिब्बे पानी लाना,  तथा तीसरी पर्ची में झाड़ू और दो डिब्बे पानी लाना लिखा होता था। पर्ची डाली जाती थी । सबसे छोटे वाले भाई को उठाने के लिए  बोला जाता था । सत्येंद्र हमारे बीच उम्र में सबसे छोटा था। तब रोटी बनाने की जिम्मेदारी श्री धर्मेंद्र सिंह नेगी कक्षा 8 को,  बर्तन की जिम्मेदारी मुझे कक्षा 7 तथा झाड़ू की जिम्मेदारी सत्येंद्र सिंह बिष्ट कक्षा 7 को मिली। यह पर्ची व्यवस्था आगे के वर्षों तक बनी रही। किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं होती थी। सभी को अपना काम परफेक्ट रखना होता था। इस कार्य विभाजन से कार्य का मूल्यांकन एवं गुणवत्ता स्पष्ट दिखाई पड़ती थी। इससे जिम्मेदारी भी फिक्स हो जाती थी। इसलिए सब sincerely  अपना काम करते थे।
सत्येंद्र सिंह बिष्ट ने हमारे साथ कक्षा 9 तक पढ़ाई की। उसके बाद वह ग्रीष्म अवकाश में अपने गांव गया और अपने गांव के स्कूल राजकीय इंटर कॉलेज डाबरीसैण  में ही पढ़ने लगा I 11वीं में उसने राजकीय इंटर कॉलेज जयहरीखाल में एडमिशन ले लिया। जब वह कक्षा 12 में पढ़ता था तब वह गढ़वाल राइफल में भर्ती हो गया। उसने कारगिल युद्ध में भाग लिया तथा कारगिल युद्ध में अच्छा परफॉर्मेंस करने के कारण उनकी पल्टन को  संयुक्त राष्ट्र संघ मिशन में लेबनान भेजा गया जहां उसे अपनी सेवा देने का अवसर मिला। 17-18 साल की सेवा करने के पश्चात वह सेना से सेवानिवृत्त हो गया। लेकिन इस बीच उसने अपनी आगे की पढ़ाई जारी रखी और अब शिक्षक है।
विद्यार्थी जीवन में घर से बाहर रहकर किए गए संघर्ष का परिणाम हुआ कि श्री अनूप सिंह बिष्ट और श्री धर्मेंद्र सिंह नेगी राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक हैं। सत्येंद्र सिंह बिष्ट पहले गढ़वाल राइफल और सेवानिवृत्त के बाद  राजकीय प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि चारों भाइयों की नौकरी 20-21 साल  तक लग गई थी। एक दिन भी कोई बेरोजगार नहीं रहा।
हम प्रतिवर्ष 30 जून को अपने गांव से विद्यालय चले जाते थे। 01 जुलाई से 30 दिसंबर तक विद्यालय चलता था। 01 जनवरी से 31 जनवरी तक शीत अवकाश होता था। 01 जनवरी को हम वापस अपने गांव वापस लौटते थे । फिर 31 जनवरी को हमारी वापसी विद्यालय को होती थी। 16 जून से 30 जून तक ग्रीष्मावकाश के लिए फिर गांव आते थे। अधिकांशतः इस अवधि में दशहरा, दीपावली, होली आदि पर्व हम अपने गांव, मां व छोटे भाई बहनों से दूर अपने दोस्तों के साथ मनाते थे।
गांव में मेरी मां ,मेरी छोटी बहन, तथा दो छोटे भाई रहते थे। तब यातायात के साधन बहुत कम थे । सड़कों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। हम सुबह अपने गांव, जो सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ था ,से रोडवेज या जीएमओ की मुंहवाली बस से डेरियाखाल आते थे और फिर वहां से कभी पैदल तो कभी जीप से लैंसडाउन जाते थे । लैंसडाउन  गांधी चौक में गुमखाल के लिए टैक्सी लगी रहती थी । टैक्सी से गुमखाल पहुंचते थे । गुमखाल में कोटद्वार -पौड़ी वाली बस में बैठकर बुआखाल में उतरते थे और फिर वहां से पौड़ी, सीकू, पोखरीखेत, पातल वाली बस में सीकू जाते थे ।
तब यातायात के बहुत सीमित साधन थे I टाइम वाली बसें ही चला करती थी । टैक्सी मैक्सी आदि नहीं चलती थी । कभी कबार बुआखाल में सीकू पोखरीखेत पातल वाली गाड़ी छूट जाती थी । तब हम दिनभर के भूखे होने के कारण बुआखाल की एक दुकान में चाय समोसा व पकौड़ी खाते थे और अपना अपना बैग लेकर  लगभग 12-13 किमी पैदल चल कर सीकू पहुंचते हैं। देर शाम तक सीकू पहुंचने के बाद हमें रात के भोजन की तैयारी  करनी होती थी। गांव के पनघट से पानी  लाना होता था। घर की सफाई करनी होती थी। बिस्तर साफ करना पड़ता था । यह सब बहुत कष्टकारी लगता था ।
हमें अपने गांव से सीकू तक यात्रा में लगभग 11 से 12 घंटे लग जाते थे । मेरे गांव से सिसलडी -चमेठा तक लगभग 40 किलोमीटर कच्ची सड़क थी। मांडाखाल से सीकू तक 10 किलोमीटर भी कच्ची सड़क थी। तब गाड़ी की अधिकतम स्पीड 20 से 25 किलोमीटर प्रति घंटा हुआ करती थी।
गाड़ी में मुझे बहुत उल्टी आती थी । यात्रा का यह दिन मेरे लिए बहुत कठिन एवं कष्टकारी होता था।  दिनभर भूखा रहना पड़ता था। स्थिति यह थी कि मुझे यात्रा करने से 1 दिन पहले से ही उल्टी का मन होने लगता था और गाड़ी देख कर मैं उल्टी करना शुरू कर देता था। कोई भी यात्री मुझे अपने बगल में नहीं बिठाना चाहता था क्योंकि मैं उल्टी करने के हाव भाव  से गाड़ी में चढ़ता था । पहले से बैठा हुआ यात्री समझ लेता था । यह स्थिति मेरे लिए बहुत कष्टकारी होती थी । फिर मुझे खिड़की वाली सीट भी चाहिए होती थी। लगभग बेहोशी की हालत में यात्रा करनी होती थी। सत्येंद्र सिंह बिष्ट को भी बहुत उल्टी आती थी और हम बारी-बारी से गाड़ी की खिड़की से उल्टी किया करते थे और कुछ लोग हम पर हंसा करते थे तथा कुछ लोग गुस्सा भी करते थे। हमें देखकर कई अन्य यात्रियों को भी उल्टी आने शुरू हो जाती थी।
अपने गांव में अवकाश व्यतीत करने के बाद जब हम लौटते थे तो कुछ दिनों तक हमें घर की बहुत याद आती थी क्योंकि घर में हमें बना हुआ खाना मिलता था। मां का प्यार मिलता था। पिताजी के कड़क अनुशासन से कुछ दिन के लिए छुटकारा मिलता था।  विशेषकर ग्रीष्मावकाश के बाद जुलाई में जब विद्यालय खुलता था तो मानसूनी वर्षा शुरू हो जाती थी । चारों तरफ लगे कोहरे तथा घनघोर बारिश के बीच हमें अपने घर ,गांव , मां, भाई तथा बहन व दोस्तों की बहुत याद आती थी । कभी-कभी हम अकेले में रोते भी थे । पढ़ाई करना, खाना बनाना,बर्तन धोना तथा झाड़ू लगाना आदि कामों में हमारा मन नहीं लगता था। लेकिन बाद के दिनों में हम एडजस्ट हो जाते थे और  कोई दिक्कत नहीं होती थी।
जब मैं कक्षा 9 में पढ़ता था तब मेरे पिताजी ने सीकू गांव से कमरा बदल दिया क्योंकि उन दिनों हम महाभारत सीरियल देखने के साथ ही शाम को चित्रहार एवं फिल्में देखने डॉ कटियार जी के क्वार्टर में जाते थे । मेरे पिताजी को लगा कि शायद हमारा पढ़ाई से मन हट रहा है और हम टीवी पर ज्यादा ध्यान देने लगे हैं। मेरे पिताजी ने नया कमरा स्कूल के बगल में ले लिया। यह कमरा बिल्कुल एकांत में जंगल के बीच में था । लगभग 2 किलोमीटर तक कोई भी बस्ती एवं घर नहीं था । नए क्वार्टर में नीचे वाली मंजिल में राजकीय एलोपैथिक चिकित्सालय संचालित होता था तथा ऊपर की मंजिल में दो कमरे हमारे पास तथा एक कमरा चिकित्सालय के स्वीपर एवं रात्रि चौकीदार श्री सुरेंद्र कुमार निवासी नहटॉर जनपद बिजनौर के पास था।
उन दिनों सुरेंद्र भाई हमारा सबसे खास पड़ोसी होने के साथ-साथ बहुत अच्छा मित्र भी था। सुरेंद्र भाई एक खुशमिजाज व्यक्ति था। उनके पास एक रेडियो था, जिस पर हम सिवाका गीतमाला सुनते थे । हमारी रेडियो में उसी समय मेरे पिताजी बीबीसी लंदन सुनते थे। सुरेंद्र भाई के रेडियो में अक्सर  कृषि जगत कार्यक्रम के दौरान हम रागिनी और आल्हा सुना करते थे I उन दिनों मुझे लगभग रेडियो में प्रसारित होने वाली सभी रागनियां और आल्हा याद हो गए थे। सिवाका गीतमाला तथा अन्य फिल्मी गीत हम लगातार सुना करते थे । इसलिए उन दिनों मुझे किसी भी गाने के धुन से ही उसके बोल, गायक ,गायिका, संगीतकार, गीतकार आदि का नाम पता चल जाता था।
सुरेंद्र भाई यूं तो बहुत अच्छा व्यक्ति एवं कर्मचारी था किंतु उसकी एक बड़ी कमजोरी थी। वह जब अपने घर जिला बिजनौर जाता था तो अपने चिकित्सालय से मात्र 2 या 3 दिन की छुट्टी लेता था लेकिन कम से कम 2 महीने बाद लौटता था। उनकी अनुपस्थिति में हमें सुरेंद्र भाई की बहुत याद आती थी। जब सुरेंद्र भाई छुट्टी से लौटकर आता था तो हर बार कोई न कोई बड़ा बहाना लेकर आता था। अक्सर वह अपना सर मुंडवा कर आता था और अपनी मां या पिताजी या अन्य परिजनों की मृत्यु का बहाना बना लेता था। शायद वह भूल जाता था कि पिछली बार भी उसने अपनी मां या पिता जी की मृत्यु का बहाना बनाकर 2 महीने की छुट्टी खाई थी। वह छुट्टी से आता था तो अपने साथ एक कट्टे में सूअर का मीट लाता था और सीकू बाजार में उसको बेचने जाता था। अक्सर हम दोनों भाई भी सुरेंद्र भाई के साथ मीट बेचने जाते थे।
सुरेंद्र भाई की दो बेटियां तथा दो बेटे थे। उनके बच्चे कभी कबार उनके साथ आते थे। उनकी बड़ी बिटिया बोलने को कक्षा चार या पांच में पढ़ती थी लेकिन उसे वर्णमाला भी नहीं आती थी। जब वह उसे पढ़ाता था तो वह रोना शुरू कर देती थी। सुरेंद्र भाई ने उसे लगातार दो महीने तक पढ़ाया लेकिन उसे अ से ज्ञ तथा 01 से 100 की गिनती  नहीं सीखा पाया । हमने भी उसको पढ़ाने का बहुत प्रयास किया किंतु फेल हो गए । सुरेंद्र भाई का बड़ा बेटा कक्षा एक में पढ़ता था । जब सुरेंद्र भाई उसको पढ़ाने बैठता था तो वह उल्टा सुरेंद्र भाई को  बिजनौरी भाषा में भद्दी भद्दी गालियां देता था। हम इसका आनंद लेते रहते थे। आज भी मुझे सुरेंद्र भाई की बहुत याद आती है और उनसे मिलने का बहुत मन करता है। यदि कभी  सुरेंद्र भाई मिलेगा तो उनको  गले जरूर लगाऊंगा।
   इस दौरान की यादों में एक विशेष याद  मेरे जेहन में आती है कि उन दिनों हमें शिकार का शौक लगा और हम जाल बनाकर दिन भर जंगली चकोर, तीतर ,जंगली मुर्गे तथा मुर्गियां आदि जाल में फंसाने  का काम करते थे। उसके साथ ही हमने गुलैल बनाई थी तथा  किसी डिब्बे में छेद कर उस पर निशाना लगाया करते थे। हमारा निशाना इतना अचूक हो गया था कि गुलेल से एक या दो पत्थर फेंकने पर ही  किसी भी पक्षी को मार देते थे । आज जब हम उस बालपन या अल्हड़पन से ऊपर उठ गए हैं तो हमें अपने किए पर पछतावा होता है तथा शर्म आती है।
उन दिनों  विद्यालय में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे हमारे अच्छे मित्र थे और उनके घर में जब भी कोई विवाह या शुभ कार्य होता था तो वह हमें अवश्य ही निमंत्रित करते थे। मुझे याद है कि थलीसैंण ,पाबॉ, खिरसू ,पौड़ी ,कलजीखाल आदि विकास खंडों के अधिकांश गांव में हम अनेक बार अपने साथियों के साथ बारात में गए ।
उन दिनों मेरे पिताजी का वेतन जिला सहकारी बैंक पौड़ी शाखा में आता था। कभी कबार मेरे पिताजी हम दोनों भाइयों में से किसी एक को वेतन लेने के लिए विड्रॉल फार्म या बैंक चेक भरकर पौड़ी भेजते थे। लेकिन केवल एक भाई को जाना होता था इसलिए दोनों को थोड़ी बाजार घूमने का शौक रहता था तथा कभी कबार इसके लिए लड़ाई झगड़ा भी हो जाता था । मेरे पिताजी ने यह सब देखा तो पर्ची सिस्टम शुरू कर दिया। इसके लिए पर्ची डाली जाती थी। 2 पर्ची तैयार की जाती थी तथा दोनों भाइयों के नाम अलग-अलग पर्ची में लिखे जाते थे । छोटा होने के कारण पर्ची  मैं उठाता था। लेकिन दुर्भाग्य है कि मैं कभी भी सफल नहीं हो सका और हमेशा पौड़ी जाने की पर्ची मेरे भाई के नाम की  उठती थी और उठाने वाला मैं  होता था। अपने बड़े भाई के कक्षा 12 पास होने के पश्चात ही मैं अपने पिताजी का वेतन लेने पौड़ी जा पाया। उससे पहले पर्ची सिस्टम में हार जाने के कारण मुझे कभी भी वेतन लेने पौड़ी जाने का मौका नहीं मिला था।
उस दौरान मेरे विद्यालय में श्री त्रिलोक सिंह नेगी जी प्रधानाचार्य, श्री हरिश्चंद्र कैंथोला प्रवक्ता नागरिक शास्त्र,  श्री इंदर सिंह रावत प्रवक्ता अर्थशास्त्र, श्री भगत सिंह रावत प्रवक्ता इतिहास , श्री दिगपाल सिंह बिष्ट प्रवक्ता समाजशास्त्र,  श्रीमती कुंती थपलियाल प्रवक्ता हिंदी , श्री रमेश चंद्र प्रवक्ता अंग्रेजी,  बाद में पीसीएस चयनित होने के उपरांत श्री रघुवीर सिंह नेगी प्रवक्ता अंग्रेजी, श्री शारदा प्रसाद थपलियाल शास्त्री जी सहायक अध्यापक संस्कृत ,श्री नरेंद्र सिंह राणा सहायक अध्यापक गणित विज्ञान ,श्री रमेश चंद्र बहुगुणा सहायक अध्यापक गणित विज्ञान, श्री दलीप सिंह रावत सहायक अध्यापक व्यायाम, श्री केसर सिंह नेगी सहायक अध्यापक जीव विज्ञान, श्री ठाकुर सिंह नेगी सहायक अध्यापक अंग्रेजी, श्री जगमोहन सिंह नेगी सहायक अध्यापक हिंदी संस्कृत, श्री विधु सिंह रावत सहायक अध्यापक सामान्य, श्री भरत सिंह रावत सहायक अध्यापक सामान्य, श्री प्रदुमन सिंह बिष्ट सहायक अध्यापक कला आदि कार्यरत थे । कार्यालय स्टाफ में मुख्य लिपिक श्री राम सिंह नेगी, वरिष्ठ लिपिक श्री महावीर सिंह रावत, कनिष्ठ लिपिक श्री जगमोहन सिंह नेगी, कार्यालय सहायक श्री विपिन चंद्र थपलियाल कार्यरत थे। चतुर्थ श्रेणी में  श्री खुशाल सिंह नेगी, श्री दिनेश सिंह बिष्ट, जोत सिंह बिष्ट ,श्री मदन सिंह नेगी ,श्री प्रेम सिंह चौहान, ठाकुर सिंह, मनबर सिंह , सोवन सिंह उर्फ सुमन तथा दिलीप सिंह आदि कार्यरत थे।
विद्यालय की छात्र संख्या लगभग 400 से 500 तक हुआ करती थी। विद्यालय में पढ़ाई का बहुत अच्छा वातावरण था। सभी शिक्षक बहुत मेहनत और लगन से अध्यापन कार्य करते थे। विद्यालय का अनुशासन बहुत अच्छा था। विद्यालय में लगातार खेल गतिविधियां होती रहती थी। विद्यालय में समय-समय पर पाठ्य सहगामी क्रियाकलाप हुआ करते थे। विद्यालय का प्रिय खेल फुटबॉल था।  विद्यालय की फुटबॉल टीम राज्य एवं जनपद स्तर पर अपना प्रदर्शन कर विभिन्न उपलब्धियां प्राप्त करती थी। राष्ट्रीय पर्व एवं विशेष दिवसों का आयोजन बड़े धूमधाम से किया जाता था । क्षेत्र के लगभग 15 से 20 गांव के लोग इन कार्यक्रमों को देखने  आते थे। एक उत्साह का वातावरण रहता था। क्षेत्रीय प्रचार निदेशालय ,संस्कृति विभाग तथा जनपद स्तरीय अन्य विभागों से अधिकारी  समय-समय पर विद्यालय में आते थे । मुझे याद है कि जब मैं कक्षा 9 में पढ़ता था तब जिलाधिकारी पौड़ी गढ़वाल भी हमारे विद्यालय में आए थे । विद्यालय में विभिन्न पाठ्य सहगामी गतिविधियां यथा वाद-विवाद, निबंध, चित्रकला प्रतियोगिता, सामान्य ज्ञान , क्विज आदि का आयोजन होता था। विद्यालय में उदंडी  बच्चों की संख्या बहुत थी । विद्यालय का अनुशासन अच्छा होने के कारण इन पर  लगाम लगी रहती थी । फिर भी शरारती बच्चे कुछ न कुछ खास करते रहते थे। विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रार्थना , देश गान, राष्ट्रगान, नीति वचन, समाचार वाचन, व्यायाम आदि होता था । सप्ताह के सभी दिन यूनिफॉर्म अनिवार्य थी । यदि किसी दिन बिना यूनिफार्म के आने को कहा जाता था तो खुशी का ठिकाना नहीं होता था।
यह भी उल्लेखनीय है कि मेरे विद्यालय के पास लगभग 200 नाली से अधिक जमीन है । जब हम यहां पढ़ते थे तो विद्यालय की भूमि पर प्रत्येक बच्चे को क्यारियां दी जाती थी और हम उनमें आलू , अदरक, प्याज, मिर्च, पहाड़ी मूली, दाल, हरी सब्जियां आदि की खेती करते थे । कृषि विषय का अध्ययन एवं प्रयोगात्मक कार्य यहीं पर होता था। हमारे विद्यालय के प्रधानाचार्य श्री त्रिलोक सिंह नेगी जी कृषि विषय को स्वयं पढ़ाते थे तथा कृषि की बारीकियों को हमें समझाते थे । हम इस विषय के पीरियड की हमेशा प्रतीक्षा करते थे क्योंकि कक्षा से बाहर तथा प्रयोगात्मक रूप से सीखने में हम सभी बच्चों को बहुत रुचि रहती थी। सभी बच्चों को आपस में हंसी मजाक और छेड़खानी का भी मौका मिल जाता था और अपनी-अपनी क्यारी को अच्छा करते हुए अपना प्रदर्शन दिखाने का भी। सभी बच्चों में सबसे अच्छा करने की होड़ रहती थी। जो पैदावार होती थी उसमें कुछ हिस्सा बच्चों को मिलता था और कुछ हिस्सा लोगों को बेचा जाता था, जिसकी धनराशि विद्यालय कोष में जमा होती थी । उत्तराखंड राज्य में पलायन की वर्तमान दशा और दिशा को देखते हुए मेरा मानना है कि कृषि एवं उद्यान विषय को पाठ्यक्रम में मुख्य विषय के रूप में अनिवार्य रूप से सम्मिलित करना चाहिए।
इस विद्यालय का फुटबॉल मैदान बहुत बड़ा है तथा स्टेडियम बनने के लिए बहुत उपयुक्त स्थल है । यह जनपद पौड़ी गढ़वाल के मुख्यालय से मात्र 13-14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है I जनपद मुख्यालय के निकट फुटबॉल मैदान या स्टेडियम या फुटबॉल अकादमी बनाने के संबंध में  इस पर विचार किया जाना चाहिए।
इसके साथ ही इस विद्यालय के आसपास लगभग 300-400 बीघा हल्की ढाल वाली भूमि स्थित है जिस पर क्षेत्र की ठंडी जलवायु होने के कारण सेब, नाशपाती, अखरोट, खुबानी, आडू आदि का बागान आसानी से तैयार किया जा सकता है। आलू उत्पादन के लिए भी यह भूमि अत्यधिक लाभप्रद हो सकती है। इस भूमि का उपयोग दलहन उत्पादन के लिए भी किया जा सकता है।
वैसे मैंने इस भूमि के राजस्व अभिलेख नहीं देखे हैं लेकिन मेरा अनुमान है कि  यह ग्राम समाज /केसर हिंद भूमि होगी ।
कभी इस क्षेत्र में घंडियाल नामक स्थान पर वर्षा जल संग्रहण का एक बेहतरीन चाल खाल हुआ करता था। इसी प्रकार के अन्य वर्षा जल संग्रहण के चाल खाल बनाकर तथा इस भूमि का बेहतर उपयोग कर उदाहरण पेश किया जा सकता है।
इस विद्यालय की उत्तर पूर्व  दिशा में बांज का घना जंगल है। विद्यालय सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है । इस विद्यालय से हिमालय की एक लंबी श्रृंखला दिखाई देती है । ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यह पर्यटन की दृष्टि से बहुत उपयुक्त स्थल है । यदि भविष्य में इसमें फल पट्टी या आलू या दलहन पट्टी विकसित होती है तो इससे पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा तथा स्वरोजगार के साथ ही पलायन को रोकने में सहायता मिलेगी।
साथियों, यूं तो मेरी माध्यमिक शिक्षा की यात्रा बहुत रोचक एवं यादगार रही है किंतु मुझे लगता है कि हमारी पीढ़ी के सभी लोगों ने इसी प्रकार से अपनी पढ़ाई की है। इस प्रकार शिक्षा के लिए हमारी पीढ़ी का संघर्ष हमारे कैरियर निर्माण में बहुत महत्वपूर्ण  रहा है। मेरा यह मानना है कि विद्यार्थी या शुरुआती जीवन में इस प्रकार का संघर्ष जीवन के अगले चरणों में आने वाली कठिनाइयों एवं चुनौतियों से निपटने में सहायता मिलती है।
संस्मरण सहित सादर धन्यवाद I
शैलेंद्र सिंह नेगी
पीसीएस 2014
उप जिलाधिकारी डोईवाला

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