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हम सम-सामयिक विषयों से आपको अपडेट रखने के साथ ही गूढ़ विषयों की जानकारी भी देते आ रहे हैं। इसके साथ ही हमारी टीम उत्तराखंड के प्राकृतिक सौंदर्य और पर्यटन के जाने-पहचाने और नए स्थलों से रूबरू कराने का प्रयास भी कर रही है। जानकारी वास्तविक हो और उसमें अनुभव का मिश्रण भी हो तो उसकी अहमियत बढ़ जाती है। इसी उद्देश्य से हम फीचर्ड व पर्यटन के सेगमेंट में वास्तविक अनुभव आप तक पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। इस सूक्ष्म डायरी रुपी अनुभव में हमने हाल में उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिला स्थित हर्षिल-क्यारकोटी ट्रेक करने वाले दल के सदस्यों की जुबानी प्रस्तुत की है। आप भी अपने ऐसे ही किसी वास्तविक अनुभव को हमारे साथ निम्न ई-मेल आईडी पर सचित्र और वीडियो के साथ शेयर कर सकते हैं।
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दूरी-18 किमी, समय-करीब तीन दिन और दो रात
समुद्रतल से ऊंचाई-3,800 मीटर (12,467 फीट)
अगस्त माह का दूसरा पखवाड़ा, जहां एक ओर प्रदेश के कई जिलों में लगातार हो रही बारिश ने डर का माहौल बनाया हुआ है और कई जगह बड़े हादसे हो रहे हैं। वहीं, उत्तरकाशी जिले की हर्षिल घाटी इन दिनों नीला आसमां लिए अपनी ख्याति के अनुरूप सवंरी हुई है। ऐसे में ट्रेकिंग के शौकीनों के कदम कहां रुकने वाले थे। बारिश और भूस्खलन से सड़कों के बाधित होने और मानसून में पहाड़ के हर एक मील पर खड़े अनजाने खतरों का भय भी पीछे छूट गया।
पहले दिन सुबह 8 बजे हर्षिल से क्यारकोटी की ओर बढ़े। जालंदरी नदी के किनारों से होते हुए ट्रेक शुरू किया। पहली मुलाकात भेड़ों से ऊन उतारते भेड़ पालकों से हुई, जो इस ऊन को कताई के लिए लेकर जाएंगे। यहां इनका पड़ाव कुछ ही दिनों का होता है, जब भेड़ों को बुग्यालों से चरा कर ऊन के लिए लाया जाता है। भेड़ पालन और ऊन का व्यापार ही यहां की पुश्तैनी और मूल आजीविका है।
हमारा पहला पड़ाव हर्षिल से 12 किलोमीटर दूर गंगनानी में था, जिसमें 8 किलोमीटर की चढ़ाई शामिल है। गंगनानी से 3 किलोमीटर पहले लाल देवता में पहुंचने पर दोपहर के 2 बज रहे थे। सबने यहां पर लंच किया और आगे बढ़े। 4 बजे गंगनानी पहुंचने पर पोर्टर्स ने टेंट लगा दिए थे।
कुछ देर चाय और आराम के बाद नदी की ओर सैर पर गये तो देखा कि नदी पार आइटीबीपी की एक यूनिट पड़ाव डाल रही है। हमें देख वे तुरंत हमारी ओर बढ़े और मदद के लिए आवाज लगाने लगे। दरअसल यहां पर एक पुल हुआ करता था, जो पिछली बरसात में टूट गया था। नदी का स्तर बढ़ा होने से वे उस पार फंस चुके थे। उनके और हमारे बीच तय हुआ कि सुबह वे अपनी ओर रस्सी बांधकर हमारी ओर फेकेंगे और हम रस्सी अपनी ओर बांधकर एक रोपवे बनाएंगे। ताकि उनकी यूनिट इस ओर आ सके और हम उस पार जाकर क्यारकोटी पहुंच सकें।
अगली सुबह 7 बजे नाश्ता करने के बाद क्यारकोटी जाने के लिए नदी के किनारे पहुंचे और दोनों ओर रस्सियां बांध दी गई। आइटीबीपी यूनिट के सभी लोगों के इस ओर आने के बाद उनके द्वारा हमें बताया गया कि उन्हें तुरंत ही हर्षिल निकलना है, इसलिए उन्हें रस्सी अभी निकालनी होगी। अब यदि हम इस रस्सी के सहारे उस पार गए तो शाम को वापस आना मुश्किल होगा।
खैर, हम अपनी ओर से ही क्यारकोटी की तरफ बढ़े। यह रास्ता खड़ी चढ़ाई वाला था, लेकिन आगे पहुंच कर हम एक खूबसूरत बुग्याल में थे। ऊपर बर्फीली चोटी से पिघल कर पानी हरे बुग्याल के बीच धवल धारा बना रहा था। यहां भेड़, घोड़े और भोटिया कुकूर (कुत्ते/श्वान/डॉग्स) मिले। चरवाहों के डेरे में मुकेश भाई मिले। उन्होंने हमें बताया कि क्यारकोटी जाने के लिए नदी पार कर पाना मुश्किल है। हम कुछ देर वहीं रुके, लंच किया, सुस्ताए और कुछ फोटोग्राफी के बाद वापस गंगनानी की ओर लौट आए।
शाम होते ही यारों की महफिल सजती है-कैंप फायर और संगीत से। कोई मोबाइल नहीं, इंटरनेट नहीं, काम की कोई बात नहीं। प्रकृति के साथ सुकून में गुजरता यहां का हर पल आनंदित कर देता है।
अहा! हर्षिल!!
लेखक-दीपक कंडारी स्वतंत्र पत्रकार, उद्यमी और प्रकृति प्रेमी हैं।