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अफसरों ने जनता को सीलिंग के दलदल में धकेला, क्या धामी सरकार निकालेगी बाहर

चाय बागान/सीलिंग की जमीन खरीदकर फंसे नागरिकों को राहत दिला सकती है धामी सरकार, सुप्रीम कोर्ट की गोल्डन फॉरेस्ट कमेटी के प्रतिनिधि ने मुख्यमंत्री को भेजा राहत की राह दिखाने वाला पत्र

Amit Bhatt, Dehradun: चाय बागान/सीलिंग की भूमि को सरकार की बिना अनुमति बेचने का सीधा मतलब यह है कि समस्त भूमि सरकार में निहित हो जाएगी। जमींदारी विनाश अधिनियम-1950 और अधिकतम जोत सीमा रोपण अधिनियम के तहत जिन भूमि को बेचने/भू-उपयोग परिवर्तन की मनाही थी, वह लगभग सभी बेची जा चुकी हैं। एक बार नहीं, कई-कई बार बेची जा चुकी हैं। इन पर आवासीय भवन से लेकर कमर्शियल भवन तक खड़े हैं। इन भूमि को बेचने वाले बेशक प्रभावशाली बिल्डर, प्रापर्टी डीलर और भूमाफिया हो सकते हैं, लेकिन खरीदार तो आमजन ही हैं। सीलिंग एक्ट में कार्रवाई होगी तो जमीन और मकान तिनका-तिनका जोड़ने वाले आम लोगों पर ही होगी। उनका क्या जिन व्यक्तियों ने यह जमीन बेची, उन मंत्री और विधायकों या सरकारों का क्या जिन्होंने सीलिंग की भूमि बिकने दी। या उन जिलाधिकारियों, अपर जिलाधिकारियों, उपजिलाधिकारियों, तहसीलदारों का क्या जिन्होंने आंख पर पट्टी बांधकर जमीन बिकने दी। क्योंकि, अब तक के ज्ञात आंकड़ों में ही सीलिंग की 7000 बीघा भूमि बेची जा चुकी है या सरकार को इनकी स्थिति के बारे में पता ही नहीं है। बेशक धामी सरकार और वर्तमान के कुछ अधिकारी (देहरादून जिला प्रशासन के) जो सीलिंग की जमीनों की बिक्री पर कार्रवाई कर रहे हैं। पर सवाल फिर वही है कि क्या इतने बड़े पैमाने पर सीलिंग भूमि से नागरिकों की बेदखली की जा सकेगी? वह भी तब, जब इसके लिए जमीन बेचने वालों या बेचने देने वालों पर कोई जिम्मेदारी तय नहीं की जा रही। तो फिर समाधान क्या है?

जमींदारी विनाश अधिनियम 1950 की धारा 154 में किया गया उत्तर प्रदेश सरकार का संशोधन।

समाधान पूर्ववर्ती प्रदेश उत्तर प्रदेश ने निकाल लिया है। इस समाधान को सुप्रीम कोर्ट की राजस्व अभिलेख संग्रहक कमेटी (गोल्डन फॉरेस्ट) के अधिकृत प्रतिनिधि अजय गोयल ने सुझाव के रूप में जिलाधिकारी देहरादून सोनिका के माध्यम से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को भेजा है। जिसमें कहा गया है कि जनपद देहरादून में विगत कुछ वर्षों में राजस्व विभाग व रजिस्ट्रेशन विभाग तथा प्रशासन की चूक के कारण जमींदारी विनाश अधिनियम की धारा 154 के सुसंगत प्रावधान का उल्लंघन कर हजारों बीघा भूमि का नियम विरुद्ध अंतरण किया गया है। इस कारण अधिकतम जोत सीमा रोपण अधिनियम व ज.वि.अधि. की धारा 166/167 के तहत विभिन्न राजस्व न्यायालयो में कार्रवाई गतिमान है। जबकि ऐसे अंतरण वाली भूमि पर अनेक भवन भी निर्मित हो चुके हैं। जिसमें अनके गरीब परिवार भी शामिल हैं। जिन्होंने तिनका-तिनका जोड़कर सिर ढकने के लिए आशियाना का सपना बुनकर भूमि क्रय की है।

इस प्रकार की समस्या के निराकरण के लिए उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने जनहित में जमींदारी विनाश अधिनियम की धारा 154 (1) के सुसंगत प्रावधान के अंतर्गत चायबागान व अन्य रीति से नियम विरुद्ध किए गए अंतरण को वैधता प्रदान करने के लिए सर्किल रेट का 25 प्रतिशत धनराशि राजकोष में जमा कराने के बाद भूमि को विनियमित किए जाने का विधान अधिनियम में किया है। इसी प्रकार उत्तराखंड की जनता को भी जनहित में उत्तराखंड सरकार प्रदेश में ज.वि.अधि. में संशोधन कर लाभ प्रदान कर सकती है।

उत्तर प्रदेश सरकार ने उ.प्र. जमींदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 की धारा 154 उपधारा (3) जोड़ कर अधिनियम में संशोधन कर व्यवस्था प्रदान की गई है। जिसमें मूल धारा 154 भूमिधर द्वारा अंतरण पर प्रतिबंध (1) उपधारा (2) में की गई व्यवस्था को छोड़कर किसी भूमिधर को विक्रय दान द्वारा चायबागान से भिन्न कोई भूमि किसी को अंतरण करने का अधिकार नहीं होगा।

क्या कहती है (उ.प्र. अधिनियम संख्या 13 सन् 2005 दिनांक 29.3.2005 ) द्वारा जोड़ी गई नई उपधारा 154 (3)
जहां उपधारा (1) के अधीन राज्य सरकार का पूर्व अनुमोदन प्राप्त न किया गया हो, वहां आवेदन पर जुर्माने के रूप में भूमि की लागत का 25 प्रतिशत के बराबर की धनराशि यथा विहित रीति से प्राप्त कर सरकार अपना अनुमोदन दे सकती है। भूमि की लागत वही होगी, जैसा कि कलेक्टर द्वारा स्टांप शुल्क के लिए तय किया जाता है।

सुझाव पत्र के मुताबिक राज्य में नियम विरुद्ध क्रय की गई हजारों बीघा भूमि पर आवासीय भवन व व्यवसायिक भवन निर्मित हो चुके हैं। जिसमें मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण द्वारा भी भवन निर्माण की विभिन्न स्वीकृतियां प्रदान की गई हैं। साथ ही बिजली-पानी के कनेक्शन और अनके शासकीय जनहित सुविधाएं राज्य सरकार द्वारा प्रदान की गई हैं। ऐसे में अब इनकी बेदखली किए जाने से गंभीर सवाल खड़े हो जाएंगे। लिहाजा, ऐसे विकट हालात में उत्तराखंड राज्य सरकार भी उ.प्र. सरकार की नीति को जनहित में अपनाकर राज्य की जनता को लाभ प्रदान कर सकती है।

उत्तराखंड सरकार भी कर चुकी है एक अहम संशोधन
गोल्डन फॉरेस्ट कमेटी के अधिकृत सदस्य अजय गोयल के मुताबिक उच्च न्यायालय उत्तराखंड में योजित जनहित याचिका संख्या 25 / 2012 राम सिंह बनाम जिला मजिस्ट्रेट ऊधमसिंहनगर में दिए गए निर्देश पर उत्तराखंड शासन ने अधिसूचना 410 / गजट (3)/2020/58 (1)2020 विधायी एवं संसदीय कार्य विभाग देहरादून दिनांक 29 अक्टुबर 2020 के द्वारा ज.वि.अधि. 1950 में धारा 143ख जोड़कर नई व्यवस्था प्रदान की है। धारा 143ख राज्य में ऐसे विकास प्राधिकरण क्षेत्र, जहां महायोजना लागू की गई है, ऐसे महायोजना विकास क्षेत्र में धारा 143 के अंतर्गत भूमि को अकृषकीय (Non-Agricultural) घोषित किए जाने की आवश्यकता नहीं है। साथ ही उत्तराखंड राज्य धारा 143ख ज.वि.अधि. के प्रभाव में आने के कारण महायोजना क्षेत्र में जमींदारी विनाश के प्रावधान समाप्त हो जाते हैं और धारा 154 ज.वि.अधि. सपठित धारा 166-167 ज.वि. के तहत कोई कार्रवाई राजस्व विभाग द्वारा अमल में नही लाई जा सकती। हालांकि, अपर कलेक्टर, देहरादून के समक्ष गतिमान कार्रवाई को शमन किया जा सकता है। यदि राज्य सरकार चाहे तो राजस्व प्राप्ति और जनता के वृहद हित के मद्देनजर चायबागान व अन्य रीति से नियम विरुद्ध अंतरण से शिकार हो चुके व्यक्तियों को राहत पहुंचाने की दिशा में ( उ.प्र.अधिनियम संख्या 13सन् 2005 दिनांक 29.3.2005 ) को यथा अंगीकृत कर प्रदेश में ज.वि.अधि. में संशोधन अधिसूचना जारी कर सकती है।

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