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अब 57% पार हुआ मतदान का आंकड़ा, 4.65% अब भी पीछे, कम मतदान का किसे नुकसान ?

भारत निर्वाचन आयोग ने जारी किए मतदान के संशोधित आंकड़े, अल्मोड़ा सीट पर सबसे कम 48.78% मतदान

Amit Bhatt, Dehradun: भारत निर्वाचन आयोग ने उत्तराखंड की 05 लोकसभा सीटों पर मतदान के संशोधित आंकड़े जारी किए हैं। पूर्व में मतदान का जो आंकड़ा 55.89 प्रतिशत पर सिमटा था, उसमें हल्का सा सुधार दर्ज किया गया है। मतदान में 1.34 प्रतिशत का सुधार पाया गया है और यह बढ़कर 57.23 प्रतिशत हो गया है। हालांकि, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले यह अब भी 4.65 प्रतिशत कम है। मतदान में आई इस गिरावट का नुकसान किसे होगा, राजनीतिक दल इसका विश्लेषण करने में जुट गए हैं। राजनीतिक गलियारों और विश्लेषकों के हवाले से जो खबर आ रही है, उसमें कहा जा रहा है कि जिन क्षेत्रों में मतदान कम पाया गया है, वह भाजपा के कैडर वोट वाले पॉकेट हैं। दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि कम मत प्रतिशत से जीत-हार का गणित तो नहीं गड़बड़ाएगा, लेकिन कम से कम 04 सीटों पर हार और जीत का अंतर जरूर कम हो जाएगा।

बड़ा सवाल: कम मतदान का किसे नुकसान ?

हमारा मानना है कि कम मतदान को हार और जीत के गणित से अधिक इस लिहाज से देखा जाना चाहिए कि आज के जागरूकता से भरे दौर में मतदाता देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी से क्यों परहेज कर रहे हैं। ऐसी क्या वजह है कि भारत निर्वाचन आयोग के तमाम तामझाम और जागरूकता कार्यक्रमों के बाद भी मतदाताओं ने पोलिंग बूथों से दूरी बनाए रखी। जबकि इस बार तो निर्वाचन आयोग ने मतदान का लक्ष्य 75 प्रतिशत निर्धारित किया था। वजह ढूंढनी होगी कि क्या राजनीतिक दलों के मुद्दे इतने अप्रासंगिक थे कि जनता ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया या फिर जो कुछ भी सरकारी मशीनरी अपने चश्मे से जनता को दिखा रही है, जनता अब वह देखना ही नहीं चाहती है।

यह भी देखना होगा कि देश के विकास और नागरिकों के जीवन में बताया जा रहा बदलाव कहीं अलग-अलग दिशाओं में तो नहीं जा रहे हैं। या दोनों बातों का एक दूसरे से कोई संबंध ही नहीं है। हो सकता है कि जनता ऐसा विकास चाहती है तो जो सीधे तौर पर उनके जीवन को प्रभावित करे। इस चुनाव के लिए मतदान हो चुका है, कम मतदान से उपजे सवालों के जवाब न सिर्फ निकट भविष्य में खोजने होंगे, बल्कि उन्हें जन-आकांक्षाओं के अनुरूप ढालना भी होगा। तभी मतदाता और मतदान के इस अंतर को कम किया जा सकता है।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी (फाइल फोटो)।

कांग्रेस हथियार डालने वाली स्थिति में दिखी, भाजपा में मोदी और धामी के साए में छिप गए प्रत्याशी
लोकतंत्र का उत्सव बेशक जनता के अधिकारों की ताकत दिखाने के लिए मनाया जाता है, लेकिन यह ताकत किस नेता की तरफ झुकेगी, उसका अक्स और प्रभाव भी मायने रखता है। देशभर में मोदी मैजिक और अबकी बार 400 पार के शोर के बीच स्थानीय प्रत्याशी जैसे छिप गए थे। बेशक यह चुनाव केंद्रीय नेतृत्व के लिए लड़ा जा रहा है, फिर भी जनता उन चेहरों पर भी एतबार करना चाहती है, जो उनके लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व देश में करते हैं। सत्ताधारी दल भाजपा की बात की जाए तो लगभग सभी प्रत्याशी खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के पीछे छिपाते नजर आए। यह भी एक कारण हो सकता है मतदाता अपने प्रत्याशियों के प्रति खुलकर ऐतबार नहीं कर पाए।

दूसरी तरफ कांग्रेस बहुत पहले से ही हथियार डालने वाली स्थिति में रही। टिहरी सीट पर लगा कि कांग्रेस ने जैसे औपचारिकता निभाने के लिए जोत सिंह गुनसोला को चुनावी रण में अकेले धकेल दिया हो। जबकि हरिद्वार संसदीय सीट पर कांग्रेस के दिग्गज और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत पार्टी से अधिक परिवार की जंग लड़ते नजर आए। इस सीट पर खानपुर विधायक और निर्दलीय प्रत्याशी उमेश कुमार ने तीसरा कोण बनाना शुरू किया तो हरीश और भी अलग-थलग नजर आए। नैनीताल और अल्मोड़ा सीट पर भी कांग्रेस का रण कौशल अपने नाम और इतिहास के अनुरूप नजर नहीं आया। जनता ने भी कांग्रेस की इस उदासी को समझा होगा और वह इस मोर्चे पर भी किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में चली गई होगी। संभवतः इन्हीं धनात्मक और ऋणात्मक गणित के चलते मतदान में भी ऋणात्मक प्रभाव देखने को मिला।

पौड़ी और टिहरी में अपने बूते रोमांच पैदा कर गए प्रत्याशी
लोकसभा चुनाव की धमक सिर्फ पौड़ी और टिहरी संसदीय सीट पर ही कुछ हद तक देखने को मिली। पौड़ी में भाजपा प्रत्याशी और पार्टी के राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी अनिल बलूनी के पक्ष में दिग्गज नेताओं को भी खूब पसीना बहाना पड़ा। जिसकी वजह यह थी कि कांग्रेस के प्रत्याशी गणेश गोदियाल ने सिर्फ अपने बूते खम ठोक रहे थे, बल्कि वह जी-जान से टक्कर भी दे रहे थे। दूसरी तरफ टिहरी सीट पर भाजपा प्रत्याशी जहां पूरे चुनाव में फूल के आभामंडल में छिपी रही। वहीं, नकल माफिया के विरुद्ध छेड़े गए आंदोलन से उपजे निर्दलीय प्रत्याशी बॉबी पंवार एक लड़ाके की भांति चुनावी रण में दहाड़ रहे थे। बॉबी की अति सक्रियता और उनके समर्थन में उमड़ पड़ने वाले हुजूम ने चुनावी मौसम का पारा गर्म रखा। फिर भी उनकी पहुंच सीमित रही और वह बहुसंख्य मतदाताओं तक अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाए।

चुनाव बहिष्कार वाले मतदान केंद्रों पर इस तरह पसरा रहा सन्नाटा।

मतदाताओं की नाराजगी भी नहीं की जा सकी दूर
इस चुनाव में मतदान का बहिष्कार करने वाले नाराज चेहरों की संख्या भी कुछ अधिक देखने को मिली। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में 10 स्थानों पर चुनाव बहिष्कार की जानकारी मिली थी, जबकि इस चुनाव में यह आंकड़ा 25 से अधिक पहुंच गया। हजारों की संख्या में मतदाताओं ने पोलिंग बूथों से पूरी तरह दूरी बनाए रखी। इसका असर उन क्षेत्रों के मतदान पर भी पड़ा, जिन्हें निर्वाचन आयोग की मशीनरी ने अथक प्रयास में बाद मना लिया था। रूठने के बाद मानने वाले क्षेत्रों में मत प्रतिशत बेहद निराशाजनक रहा। राजधानी देहरादून में ही कम से कम छह क्षेत्रों के मतदाताओं ने मतदान किया ही नहीं।

मतदान के संशोधित आंकड़े
लोकसभा सीट मत प्रतिशत
अल्मोड़ा            48.78
पौड़ी (गढ़वाल)    52.42
टिहरी गढ़वाल     53.76
नैनीताल             62.47
हरिद्वार              63.73

राष्ट्रीय औसत के मुकाबले उत्तराखंड में मत प्रतिशत का इतिहास
चुनाव वर्ष-उत्तराखंड-राष्ट्रीय—अंतर
2004—–49.25——58.07—8.82
2009—–53.96——58.21—4.25
2014—–62.15——66.30—4.15
2019—–61.50——67.40—5.90
2024—–57.23——चुनाव प्रक्रिया जारी

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