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जिस जमीन पर अपर सचिव, दरोगा और नागरिकों का विवाद हुआ, वह न सरकार की और न निजी

सुद्धोवाला में विवाद का कारण बनी जमीन है गोल्डन फारेस्ट की, पीडीयूसीटीआरएफए परिसर में निर्माणाधीन बाउंड्रीवॉल तोड़ने को लेकर हुआ था विवाद

Amit Bhatt, Dehradun: सुद्धोवाला में पंडित दीनदयाल उपाध्याय वित्तीय प्रशासन, प्रशिक्षण एवं अनुसंधान केंद्र (पीडीयूसीटीआरएफए) की निर्माणाधीन चाहरदीवारी तोड़ने और तारबाड़ काटने को लेकर हुआ ड्रामा सभी ने देखा। किस तरह अपर सचिव वित्त परिसर से सटी भूमि पर मालिकाना हक जताने वालों से उलझ गए थे। एक व्यक्ति को तो उन्होंने थप्पड़ जड़ने के लिए हाथ भी उठा दिया था। विवाद को सुलझाने पहुंचे झाझरा चौकी इंचार्ज हर्ष अरोड़ा के साथ भी उनकी बहस हुई। अपर सचिव के अभद्र व्यवहार पर तो कोई कार्रवाई नहीं की गई, लेकिन दरोगा हर्ष अरोड़ा को जरूर निलंबित कर दिया गया। अब जो बात सामने आई, वह और भी आश्चर्य करने वाली है। जिस जमीन के मार्ग को लेकर विवाद खड़ा हुआ और जिस पीडीयूसीटीआरएफए की बाउंड्रीवॉल तोड़ी गई, दोनों ही गोल्डन फारेस्ट की है। संबंधित भूमि न तो सरकार की है और न ही दावा करने वाले किसी अन्य व्यक्ति की।

गोल्डन फारेस्ट की हजारों करोड़ रुपये की भूमि/संपत्ति पर सुप्रीम कोर्ट का स्टे है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को भी ऐसी संपत्ति पर यथास्थिति कायम करने का आदेश दिया है। क्योंकि, गोल्डन फारेस्ट और उसकी सहयोगी कंपनियों ने नियमों के विपरीत जाकर लोगों मोटे मुनाफे का झांसा देकर रकम एकत्रित की और उससे जमीनें खरीद डाली। अब सुप्रीम कोर्ट नागरिकों की रकम लौटने के लिए गोल्डन फारेस्ट की संपत्तियों की नीलामी करा रहा है। सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित समिति ऐसी संपत्तियों का चिह्नीकरण कर रही है और आयकर विभाग के माध्यम से उनका मूल्यांकन करा रही है। देहरादून में अब तक ऐसी 1484 करोड़ रुपये की संपत्तियों की पहचान भी कराई जा चुकी है।

सबसे बड़ी दिक्क्त यह है कि गोल्डन फारेस्ट से जुड़े तमाम भूमि विवाद अपर जिलाधिकारी (प्रशासन) की कोर्ट में गतिमान हैं। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट के स्टे के बाद भी यह आदेश तमाम खतौनियों में दर्ज नहीं कराया जा रहा है। जिस कारण मूल खातेदार और काबिज व्यक्तियों गोल्डन फारेस्ट से जुड़ी संपत्ति को खुर्दबुर्द कर रहे हैं। इसी तरह जो जमीन सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पूर्व राज्य सरकार में निहित की गई थी, उनमें सुप्रीम कोर्ट का आदेश दर्ज न होने की दशा में सरकार उनका आवंटन विभिन्न विभागों को कर चुकी है।

देखा जाए तो दोनों की स्थिति खतरनाक है। क्योंकि, गोल्डन फारेस्ट की जमीनें यदि इसी तरह बेचीं जाती रहीं या आवंटित की जाती रहीं तो नीलामी का समय आने पर विवाद की स्थिति और बढ़ जाएगी। खासकर जिन भोलेभाले व्यक्तियों को ऐसी जमीनें बेची जा रही हैं, वह बुरी तरह फंस सकते हैं। ऐसे में जिला प्रशासन को सुप्रीम कोर्ट के आदेश का संज्ञान लेकर गोल्डन फारेस्ट की संपत्तियों की खतौनी में कोर्ट का आदेश दर्ज कराना होगा। इसके बाद भी दस्तावेजों में सुप्रीम कोर्ट का आदेश न चढ़ाना अपर जिलाधिकारी को भारी भी पड़ सकता है।

यह है गोल्डन फॉरेस्ट की जमीन खरीद का प्रकरण
वर्ष 1997-98 में सेबी ने गोल्डन फॉरेस्ट की 111 कंपनियों की ओर से देहरादून समेत देशभर में खरीदी गई हजारों बीघा जमीनों को वित्तीय नियमों का उल्लंघन बताया था। उन्होंने इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया था। कोर्ट ने गोल्डन फॉरेस्ट कंपनियों के निदेशकों को जमीनों की बिक्री के लिए प्रतिबंधित कर दिया था। साथ ही संपत्ति की जानकारी एकत्रित करने के लिए वर्ष 2003 में दिल्ली हाईकोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस केटी थॉमस की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी थी। ताकि संपत्ति की नीलामी कराकर निवेशकों का पैसा लौटाया जा सके। कई संपत्तियों को अब तक नीलाम कर उसकी धनराशि सुप्रीम कोर्ट में जमा भी कराई जा चुकी है।

दूसरी तरफ तत्कालीन उप जिलाधिकारी सदर ने जेडए एक्ट में एक व्यक्ति को 12.5 एकड़ भूमि की ही खरीद करने के अधिकार नियम के उल्लंघन पर 21 अगस्त 1997 को सरप्लस जमीनों को सरकार में निहित कर दिया। गोल्डन फॉरेस्ट की अपील पर उत्तर प्रदेश राजस्व परिषद ने एसडीएम के आदेश को निरस्त कर दिया था। इसके खिलाफ सरकार नैनीताल हाईकोर्ट पहुंची। वर्ष 2005 में नैनीताल हाईकोर्ट ने गोल्डन फॉरेस्ट के हक में निर्णय दिया। तब सरकार ने वर्ष 2011 में सुप्रीम कोर्ट में अपील की। उसी साल सुप्रीम कोर्ट ने प्रकरण को उत्तराखंड राजस्व परिषद के सुपुर्द कर दिया। वर्ष 2015-16 में परिषद ने उसी रूप में प्रकरण जिलाधिकारी कोर्ट को सुनवाई के लिए सौंप दिया।

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